अकेले के पल- 6 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
मित्र !
अपने आकाश को घेरकर
मैंने अपना ऑगन बनाया था
जिसके एक कोने में बैठकर
मैंने सोचा था
पक्षियों के स्वरित गान में
किरणों को पसारते
दोपहर के प्रज्वलन में तेज दिखाते
और अपनी सांध्य-अनुभूतियों
के जागरण में
डूबते सूरज को
मैं देख सकूँगा
और प्रकृति के रहस्य में
अपना रहस्य खोज सकूँगा.
पर इसी समय
वायु के अणु-तरंगों ने
एक निमंत्रण दिया था जिसमें
तुम्हारे शब्दों की ध्वनि और
सिहराता स्पर्श था
उसमें इतना तीव्र कर्षण था कि
अपने अकेले की नाव में बैठ
अकेले के पलों को साथ लिए
तुम्हारे सिंहद्वार तक
मैं खिंचा चला आया था.
वहाँ देखा तुम्हारे द्वार खुले थे
खिड़कियों से प्रकृति निकल पैठ रही थी
फिर भी दस्तक देकर ही
तुम्हारे ऑगन में मैं आना चाहता था
पर दस्तक के लिए उठे मेरे हाथ
उठे ही रह गए थे
द्वार पर टॅगी तख्तियों ने मुझे टोका था
और मेरी उमड़ी श्रद्धा
ठिठकी रह गई थी.
यों इस यात्रा के पहले
कितनी ही बार यह श्रद्धा
उभरती मिटती रही है
किंतु तब कुछ अचंभा नहीं लगा था
पर उस दिन देखा
मैं नदी का द्वीप हो गया हूँ
दूर तक दृष्टि दौड़ाया
कहीं कोई छोर नहीं दिखा
लहरें मुझसे टकराती रहीं
फिर पलटकर
दूर दिगंत में अंतर्र्लीन होती रहीं
वहाँ कुछ दिखी तो केवल प्रकृति दिखी
मेरा मैं नहीं दिखा
पर ‘मैं’ का एहसास दिखा.
मेरे अकेले के पल मेंरे साथ थे उस दिन
मैंने सोचा अभी दस्तक न दूँ
थोड़ा ठहरकर
अपने पलों को ढूढ़ूँ
अपने आप को खोजॅू
कहीं मैं खो तो नहीं गया.
अभी मैं
अंतरान्वेषण में ही लगा था
कि फिर एक स्पंदन हुआ
जो जड़ें
अभी मेरी मुट्ठी में नहीं आईं थीं
एकबारगी हिल गई
लगा कुछ टूट गया
और मेरे अंदर एक रिक्ति उतर आई
एक शून्य तिर गया.
इस प्रतीति ने
शायद मेरी स्नायु की
कोई गाँठ खोल दी
मेरा आकाश
मुक्ति की करुणा से नहा गया
पर कौन सी गाँठ खुली
मैं नहीं समझ सका
पर ग्रंथि खुलने पर मुझे भाषा कि
तुम्हारा भी अपना एक आँगन है
पर उसकी सीमाएँ नहीं दिख रहीं
पर तुम जागरित थे
अस्ति नास्ति से दूर
वह घेरा तुम्हें उत्पीड़क लगा
उसे तोड़कर
आखिरकार तुम आकाश हो गए
सारा आकाश.
कल तुम देही वर्तमान थे
आज तुम शून्यक आकाश हो
अपने देहांतरण के अंतिम क्षणों में
तुमने कहाः
‘‘मैं सदैव वर्तमान हूँ
कल सागर बूँद में सिमट कर
स्थूल हो गया था
आज बूँद सागर में मिलकर
विस्तार पा गई.’’
मित्र !
आज तुम्हारी सीमाएँ
नहीं दिख रहीं
पर तुम्हारी उद्स्थिति
मेरी अनुभूति को छेड़ती है
और भी जीवंत और भी ज्वलंत होकर
काश मैं इन पलों का होकर
इन्हें जी पाता
आकाश की शून्यता मेरी हो जाती
पूरी या अधूरी.