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अक्षर की व्यथा / पवन चौहान

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मुझे नहीं पड़े रहना है
किसी अंधेरे कोने में अनजान सा
किताबों के पन्नों तक सिमटे
जिस पर धूल की परत
मोटी और मोटी होती जाती है
नहीं जलना है चूल्हे में
आग सुलगाने के वास्ते
नहीं जाना है किसी आवारा जानवर के मुँह में
उसकी भूख मिटाने
नहीं दबना है मुझे कंही
बदबुदार कचरे के ढेर में
बिकना नहीं है मुझे रद्दी में
पानी में पड़े गलना नहीं है मुझे पल-पल
टूटना नहीं है तार-तार
नहीं जीना है मुझे
कागज के बंद लिफाफों के अंदर
घुट-घुट कर
नहीं जकड़े रहना है मुझे
निर्बल रुढियों में
बस! बहुत हुआ
अब मुझे स्वतंत्रता चाहिए
घुंघट से झांकते अनगिनत चेहरों से
मिटाना है मुझे अशिक्षा का कलंक
मैं अपनी गूढ़ी काली काया संग
हर जुबान हर हाथ में जाकर
हर कलम से छूटकर निखार चाहता हूँ
स्थिर जल में गिरती बूँद की तरह
अब मैं फैलाव चाहता हूँ।