अखबार / अरविन्द यादव
आज सूरज के जागने से पहले
किसी ने ज़ोर से खटखटाया दरवाज़ा मेरे कमरे का
मैंने नींद, सोया था जिसके आगोश में
छोड़कर, खोला कमरे का दरवाजा
अचानक मैं रह गया अवाक
देखकर उस निर्भय साथी को
जिसके साथ हम रोज
बतियाते थे, पीते हुए चाय
भय से काँप रहा था उसका शरीर
दिखाई दे रहे थे जगह-जगह स्याह चोट के निशान
इतना ही नहीं, दिखाई दे रहे थे अनगिनत घाव
जिनसे झलक रहा था खून कहीं-कहीं
हिम्मत बँधाते हुए, देकर हाथों का सहारा
उठाकर ले गया कमरे के अन्दर
लेकर के गोद जब पूछा हाल-ए-दिल
वह बोला काँपते हुए लड़खड़ाती आवाज़ में
हत्यायें कर रहीं हैं साजिश, करने को मेरी हत्या
लुटेरे आतुर हैं लूटने को, मेरी सच की संचित पूँजी
कुर्सियाँ कर रहीं हैं कोशिश, करने को नतमस्तक
अपनाकर, साम, दाम, दण्ड, भेद
क्यों कि मैं नहीं मिलाता हूँ, उनकी हाँ में हाँ
जैसे मिलाते हैं और बेचकर अपना जमीर
इसलिए सब मिटाना चाहते हैं मेरा अस्तित्व
ताकि दबाया जा सके, स्वर प्रतिरोध का।