भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अखरावट / पृष्ठ 5 / मलिक मोहम्मद जायसी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ: अखरावट / मलिक मोहम्मद जायसी

<< पिछला भाग


दोहा

पुहुप बास जस हिरदय रहा नैन भरिपूरि ।
नियरे से सुठि नीयरे, ओहट से सुठि दूरि ॥

सोरठा

दुवौ दिस्टि टक लाइ, दरपन जो देखा चहै ।
दरपन जाइ देखाइ, मुहमद तौ मुख देखिए ॥41॥

छा-छाँडेहु कलंक जेहि नाहीं । केहु न बराबरि तेहि परछाहीं ॥
सूरज तपै परै अति घामू । लागे गहन गहन होइ सामू ॥
ससि कलंक का पटतर दीन्हा । घटै बढे औ गहने लीन्हा ॥
आगि बुझाइ ज पानी परई । पानि सूख, माटी सब सरई ॥
सब जाइहि जो जग महँ होई । सदा सरबदा अहथिर सोई ॥
निहकलंक निरमल सब अंगा । अस नाहीं केहु रूप न रंगा ॥
जो जानै सो भेद न कहई । मन महँ जानि बूझि चुप रहई ॥

दोहा

मति ठाकुर कै सुनि कै, कहै जो हिय मझियार ।
बहुरि न मत तासौं करै ठाकुर दूजी बार ॥

सोरठा

गगरी सहस पचास जौ, कोउ पानी भरि धरै ।
सूरुज दिपै अकास, मुहमद सब महँ देखिए ॥42॥

ना-नारद तब रोइ पुकारा । एक जोलाहै सौं मैं हारा ॥
प्रेम-तंतु निति ताना तनई । जप तप साधि सैकरा भरई ॥
दरब गरब सब देइ बिथारी । गनि साथी सब लेहिं सँभारी ॥
पाँच भूत माँडी गनि मलई । ओहि सौं मोर न एकौ चलई ॥
बिधि कहँ सँवरि साज सो साजै । लेइ लेइ नावँ कूँच सौ माँजै ॥
मन मुर्री देइ सब अँग मोरै । तन सो बिनै दोउ कर जोरै ॥
सुथ सूत सो कया मँजाई । सीझा काम बिनत सिधि पाई ॥

दोहा

राउर आगे का कहै जो सँवरै मन लाइ ।
तेहि राजा निति सँवरै पूछै धरम बोलाइ ।

सोरठा

तेहि मुख लावा लूक, समुझाए समुझै नहीं ।
परै खरी तेहि चूक, मुहमद जेहि जाना नहीं ॥43॥

मन सौं देइ कढनी दुइ गाढी । गाढे छीर रहै होइ साढी ॥
ना ओहि लेखे राति न दिना । करगह बैठि साट सो बिना ॥
खरिका लाइ करै तन घीसू । नियर न होइ, डरैं इबलीसू ॥
भरै साँस जब नावै नरी । निसरै छूँछी, पैठै भरी ॥
लाइ लाइ कै नरी चढाई । इललिलाह कै ढारि चलाई ॥
चित डोलै नहिं खूँटी ढरई । पल पल पेखि आग अनुसरई ॥
सीधे मारग पहुँचै जाइ । जो एहि भाँति करै सिधि पाई ॥

दोहा

चलै साँस तेहि मारग, जेहि से तारन होइ ।
धरै पाव तेहि सीढी , तुरतै पहुँचै सोइ ॥

सोरठा

दरपन बालक हाथ, मुख देखे दूसर गनै ।
तस भा दुइ एक साथ, मुहमद एकै जानिए ॥44॥

कहा मुहम्मद प्रेम-कहानी । सुनि सो ज्ञानी भए धियानी ॥
चेलै समुझि गुरू सौं पूछा । देखहुँ निरखि भरा औ छूँछा ॥
दुहुँ रूप है एक अकेला । औ अनबन परकार सो खेला ॥
औ भा चहै दुवौ मिलि एका । को सिख देइ काहि को टेका ? ॥
कैसे आपु बीच सो मेटै ? । कैसे आप हेराइ सो भेंटै ?॥
जौ लहि आपु न झियत मरई । हँसै दूरि सौं बात न करई ॥
तेहि कर रूप बदन सब देखै । उठै घरी महँ भाँति बिसेखै ॥

दोहा

सो तौ आपु हेरान है, तम मन जीवन खोइ ।
चेला पूछै गुरू कहँ, तेहि कस अगरे होइ ?॥

सोरठा

मन अहथिर कै टेकु, दूसर कहना छाँडि दे ।
आदि अंत जो एक, मुहमद कहु, दूसर कहाँ ॥45॥

सुनु देला ! उत्तर गुरु कहई । एक होइ सो लाखन लहई ॥
अहथिर कै जो पिंडा छाडै । औ लेइकै धरती महँ गाडै ॥
काह कहौं जस तू परछाहीं । जौ पै किछु आपन बस नाहीं ॥
जो बाहर सो अंत समाना । सो जानै जो ओहि पहिचाना ॥
तू हेरै भीतर सौं मिंता । सोइ करै जेहि लहै न चिंता ॥
अस मन बूझि छाँडु;को तोरा ?। होहु समान, करहु मति `मोरा' ॥
दुइ हुँत चलै न राज न रैयत । तब वेइ सीख जो होइ मग ऐयत ॥

दोहा

अस मन बूझहु अब तुम, करता है सो एक ।
सोइ सूरत सोइ मूरत, सुनै गुरू सौं टेक ॥

सोरठा

नवरस गुरु पहँ, भीज, गुरु=परसाद सो पिउ मिलै ।
जामि उठै सो बीज, मुहमद सोई सहस बुँद ॥46॥

माया जरि अस आपुहि खोई । रहै न पाप, मैलि गइ धौई ॥
गौं दूसर भा सुन्नहि सुन्नू । कहँ कर पाप, कहाँ कर पुन्नू ॥
आपुहि गुरू, आपु भा चेला । आपुहि सब औ आपु अकेला ।
अहै सो जोगी, अहै सो भोगी । अहैं सो निरमल,अहै सो रोगी ॥
अहै सो कडुवा, अहै सो मीठा । अहै सो आमिल, अहै सो सीठा ॥
वै आपुहि कहँ सब महँ मेला । रहै सो सब महँ, खेलै खेला ॥
उहै दोउ मिलि एकै भएऊ । बात करत दूसर होइ गएऊ ॥

दोहा

जो किछु है सो है सब, ओहि बिनु नाहिंन कोइ ।
जो मन चाहा सो किया , जो चाहै सो होइ ।

सोरठा

एक से दूसर नाहिं बाहर भीतर बूझि ले ।
खाँडा दुइ न समाहिं, मुहमद एक मियान महँ ॥47॥

पूछौं गुरु बात एक तोंही । हिया । सोच एक उपजा मोहीं ॥
तोहि अस कतहुँ न मोहि अस कोई । जो किछु है सो ठहरा सोई ॥
तस देखा मैं यह संसारा । जस सब भाँडा गढै कोहाँरा ॥
काहू माँझ खाँड भरि धरई । काहू माँझ सो गोबर भरई ॥
वह सब किछु कैसे कै कहई । आपु बिचारि बूझि चुप रहई ॥
मानुष तौ नीकै सँग लागै । देखि घिनाइ त उठि कै भागै ॥
सीझ चाम सब काहू भावा । देखि सरा सो नियर न आवा ॥

दोहा

पुनि साईं सब जन मरै, औ निरमल सब चाहि ।
जेहि न मैलि किछु लागै, लावा जाइ न ताहि ॥

सोरठा

जोगि, उदासी दास, तिन्हहिं न दुख औ सुख हिया ॥
घरही माहँ उदास, मुहमद सोइ सराहिए ॥48॥

सुनु चेला ! जस सब संसारू । ओहि भाँति तुम कया बिचारू ॥
जौ जिउ कया तौ दुख सौं भीजा । पाप के ओट पुन्नि सब छीजा ॥
जस सूरुज उअ देख अकासू । सब जग पुन्नि उडै परगासू ॥
भल ओ मंद जहाँ लगि होई । सब पर धूप रहै पुनि सोई ॥
मंदे पर वह दिस्टि जो परई । ताकर मैलि नैन सौं ढरई ॥
अस वह निरमल धरति अकासा । जैसे मिली फूल महँ बासा ॥
सबै ठाँव औ सब परकारा । ना वह मिला, न रहै निनारा ॥

दोहा

ओहि जोति परछाहीं नवौ खंड उजियार ।
सूरुज चाँद कै जोती, अदित अहै संसार ॥

सोरठा

जेहि कै जोति-सरूप, चाँद सुरुज तारा भए ।
तेहि कर रूप अनूप, मुहमद बरनि न जाइ किछु ॥49॥

चेलै समुझि गुरू सौं पूछा । धरती सरग बीच सब छूँछा ॥
कीन्ह न थूनी, भीति, न पाखा । केहि बिधि टेकि गगन यह राखा ?॥
कहाँ से आइ मेघ बरिसावै । सेत साम सब होइ कै धावै ?॥
पानी भरै समुद्रहि जाई । कहाँ से उरे, बरसि बिलाई ?॥
पानी माँझ उठै बजरागी । कहाँ से लौकि बीजु भुइ लागी ?॥
कहँवा सूर , चंद औ तारा । लागि अकास करहिं उजियारा?॥
सूरुज उव बिहानहि आई । पुनि सो अथ कहाँ कहँ जाई ?॥

दोहा

काहै चंद घटत है, कहे सूरुज पूर ।
काहे होइ अमावस, काहे लागे मूर ?॥

सोरठा

जस किछु माया मोह, तैसे मेघा, पवन, जल ।
बिजुरी जैसे कोह, मुहमद तहाँ समाइ यह ॥50॥

सुनु चेला ! एहि जग कर अवना । सब बादर भीतर है पवना ॥
सुन्न सहित बिधि पवनहि भरा । तहाँ आप होइ निरमल करा ॥
पवनहि महँ जो आप समाना । सब भा बरन ज्यों आप समाना ॥
जैस डोलाए बेना डोलै । पवन सबद होइ किछुहु न बोलै ॥
पवनहि मिला मेघ जल भरई । पवनहि मिला बुंद भुइँ परई ॥
पवनहिं माहँ जो बुल्ला होई । पवनहि फुटै, जाइ मिलि सोई ॥
पवनहि पवन अंत होइ जाई । पवनहि तन कहँ छार मिलाई ॥


अगला भाग >>