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अग्निपथ / अमरेन्द्र

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क्या तुम भी मेरे जैसा ही दुख सहते हो
जहाँ पेड़ से झूल रहे हों युवती के शव
सन्नाटा हो, उत्सव का कलरव हो नीरव
वहाँ गीत गाने को क्यों मुझसे कहते हो ।

जहाँ काम नर के चरणों पर झुका प्रणत था
वहीं आज है तिलक भाल का; चन्द्र जटा पर
दौड़ रहा है दण्ड काल का घोर घटा पर
कहाँ गया वह समय, शील में मानस रत था !

प्राणकोश पर अन्नकोष का शासन; यम का
आँखें गिर कर लटक गयी हैं कटि पर आकर
कंचनपुर में कहाँ खो गया कबिरा-आखर
उड़ा रहा है आग चिता की शशि पूनम का ।

ऐसे में इस नील कण्ठ से क्या गाऊँगा
धूम्रहीन ज्वाला में जल कर मर जाऊँगा ।