अग्नि-तर्पण / विमल राजस्थानी
भूखा बच्चा चंदा को मामा क्यों माने
जो नकली दूध-भात शिशु के हित लाया है
उसको तो लगता-दूर गगन में गोल-गोल
जैसे रोटी की झिलमिल-झिलमिल छाया है
कैसे उपजे साहित्य, कला कैसे पसरे
जब पेट पीठ से पीड़ा कहने लगता हो
रातें कटतीं हों घुटनों में सिर दिये-दिये
दृग से लोहू आँसू बन बहने लगता हो
मुट्ठी भर धूर्तों की ही चाँदी कटे जहाँ
जो देष करोड़ों के जीवित शव ढ़ोता हो
चैतरफा भिखमंगो से पटी मही दीखे
दिन-रात जहाँ नरमेध चतुर्दिक होता हो
लेखनी स्वेद से नहा, अग्नि का तर्पण कर
कुछ लिखे शब्द विस्फोटक, क्रुद्ध क्रांति पसरे
वह दिन ही विजय-दिवस श्रम-पुत्रों का होगा
जब चित्रों में लपटों का तांडव ही उकरे
है क्या कोई वह लाल, भारती का सपूत
जो भूषण-सी वाणी में फिर हुँकार करे
जन-मानस में हो अग्नि प्रज्वलित धुँआधार
परितृप्त मनुज षिव-सुन्दर से श्रृंगार करे
पेटों की भट्ठी बुझे, तृषा मर्यादित हो
हो चिन्ता-मुक्त समाज, सुखी-आनन्दित हो
चंदन-चर्चित लेखनी, शब्द पर फूल चढ़ें
वाणी-पुत्रों की स्तुतियाँ शारदा गढ़े