अग्नि / अमरजीत कौंके
वैसे तो हर इन्सान के भीतर
होती है अग्नि
कहीं होती है
यह संस्कारों की राख के नीचे
कहीं आदर्शों की पर्त के नीचे गुम
कहीं डर के बादलों के नीचे छुपी
कहीं फर्ज़ की सतह के नीचे
अक्सर दबी रहती है
अग्नि
कितनी देर से
शब्दों की कुदाल लेकर
मैं खोद रहा था
तुम्हारे मन की धरती
इस कोने-कभी उस कोने
इस दिशा में कभी उस दिशा में
ढूँढता रहा अग्नि
क्योंकि तुम्हारी आँखों में
मैंने पढ़ा था सेंक इसका
खोदता रहा बहुत देर
तुम्हारे मन की पृथ्वी
मुझे लगा था
कि संस्कारों की भारी स्तह के नीचे
यहीं
कहीं न कहीं
छुपी है अग्नि
खोदते-खोदते
आख़िर मैंने ढूँढ ही ली
एक दिन
तुम्हारे मन की पृथ्वी में
गहरी दबी हुई
अग्नि
लेकिन इससे पहले
मैं अग्नि चुराता
अग्नि का फूल बनाता
मैं अग्नि पकड़ने की
कोशिश करता
अग्नि में
भस्म हो चुका था ।
मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा