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अजाना आकाश / उत्पल बैनर्जी / प्रोमिता भौमिक
Kavita Kosh से
साँझ के पार्श्व में लगे हैं
उड़ गए पँखों के रंग;
फटी हुई स्मृतियों के समान
टूटते जा रहे हैं सारे रास्ते
जगे रहने की आवाज़ से
थमता जा रहा है शरीर-मन
जिसे मैं फेंक आई थी
चाहकर भी उसे नहीं लौटा पा रही हूँ
तुम हटते जा रहे हो दूर
और थरथरा उठी है बुझती रोशनी
ख़ासी दूरी पार कर —
मेरी हथेली पर
मुड़कर देख रहा है अजाना आकाश
लगातार ऊपर उठते-उठते
ख़ुद को बहुत हलका महसूस हो रहा है
हालाँकि नीचे की ओर देखती हूँ तो
कुछ और दिन जीते रहने की इच्छा होती है।
मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी