अथ राग सारंग / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल
अथ राग सारंग
(गायन समय मध्य दिन)
264. गुरु ज्ञान। सूरफाख्ता ताल
हो ऐसा ज्ञान ध्यान, गुरु बिना क्यों पावे।
वार पार पार वार, दुस्तर तिर आवे हो॥टेक॥
भवन गवन गवन भवन, मन हीं मन लावे।
रवन छवन छवन रवन, सद्गुरु समझावे हो॥1॥
क्षीर नीर नीर क्षीर, प्रेम भक्ति भावे।
प्राण कमल विकस विकस, गोविन्द गुण गावे हो॥2॥
ज्योति युगति बाट घाट, लै समाधि ध्यावे।
परम नूर परम तेज, दादू दिखलावे हो॥3॥
265. केवल विनती। पंजाब त्रिताल
तो निबहै जन सेवक तेरा, ऐसे दया कर साहिब मेरा॥टेक॥
ज्यों हम तोरैं त्यों तूं जोरे, हम तोरैं पै तूं नहिं तोरे॥1॥
हम विसरैं पै तूं न विसारे, हम बिगरैं पै तूं न बिगारे॥2॥
हम भूलैं तूं आण मिलावे, हम बिछुरैं तूं अंग लगावे॥3॥
तुम भावे सो हम पै नाँहीं, दादू दर्शन हेु गुसांई॥4॥
266. काल चेतावनी। पंजाबी त्रिताल
माया संसार की सब झूठी,
मात-पिता सब ऊभे भाई, तिनहिं देखतां लूटी॥टेक॥
जब लग जीव काया में थारे, क्षण बैठी क्षण ऊठी।
हंस जु था सो खेल गया रे, तब तैं संगति छूटी॥1॥
ए दिन पूगे आयु घटानी, तब निचिन्त होइ सूती।
दादू दास कहै ऐसी काया, जैसे गगरिया फूटी॥2॥
267. माया मध्य मुक्ति। त्रिताल
ऐसे गृह मैं क्यों न रहै, मनसा वाचा राम कहै॥टेक॥
संपति विपति नहीं मैं मेरा, हर्ष शोक दोउ नाँहीं।
राग-द्वेष रहित सुख-दुःख तैं, बैठा हरि पद माँहीं॥1॥
तन-धन माया-मोह न बाँधै, बैरी मीत न कोई।
आपा पर सम रहै निरंतर, निज जन सेवग सोई॥2॥
सरवर कमल रहै जल जैसे, दधि मथ घृत कर लीन्हा।
जैसे वन में रहै बटाऊ, काहू हेत न कीन्हा॥3॥
भाव भक्ति रहै रस माता, प्रेम मगन गुण गावे।
जीवित मुक्त होइ जन दादू, अमर अभय पद पावे॥4॥
268. परिचय उपदेश। त्रिताल
चल रे मन तहाँ जाइए, चरण बिन चलबो।
श्रवण बिन सुनबो, बिन कर बैन बजाइए॥टेक॥
तन नाँहीं जहँ, मन नाँहीं तहँ, प्राण नहीं तहँ आइए।
शब्द नहीं जहाँ, जीव नहीं तहँ, बिन रसना मुख गाइए॥1॥
पवन पावक नहीं, धरणि अम्बर नहीं, उभय नहीं तहँ लाइए।
चंद नहीं जहँ, सूर नहीं तहँ, परम ज्योति सुख पाइए॥2॥
तेज पुंज सो सुख का सागर, झिलमिल नूर नहाइए।
तहाँ चल दादू अगम अगोचर, तामें सहज समाइए॥3॥
॥इति राग सारंग सम्पूर्ण॥