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अधबने, आधे-अधूरे / नईम
Kavita Kosh से
अधबने,
आधे
अधूरे
आए फिर कोई तराशे।
आदमी-से
रह न पाए,
रह गए होकर तमाशे।
गीध, बगुलों-से जमे दिन
रात करती काँव-काँव,
किसी मशरफ के नहीं हम
हो गए हैं पाँव-पाँव;
वक्त फिर से तराजू पर
ठीक से तौले-तपासे।
बेदरो-दीवार के कुछ
खंडहर डेरे पड़े हैं।
भेड़िए कूकर जतन से
चौतरफ घेरे खड़े हैं;
शख़्सियत गुम हो गई-
पहचान भी कैसे तलाशे?
तरक़्क़ी, घुसपैठ, घपले,
ये ख़यानत वो दिवाले,
भूख, बेकारी, ग़रीबी
बेचने निकली मसाले;
सिरों पर
तलवार लटकी
गर्दनों पर है गँड़ासे।
आए फिर कोई तरासे।