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अधूरा दंतक्षत / ऋषभ देव शर्मा
Kavita Kosh से
सुनो !
सृष्टि के आरंभ में
उस क्षण
मेरे दाएँ हाथ की
अनामिका के पहले पोर पर
जो संसभ्रम
अधूरा दंतक्षत
तुमने लिख दिया था,
वह
रति के कामनालेख सा
हर साँझ
कल्पवृक्ष बन महमहाता है,
रोमों में
घंटियाँ बजने लगती हैं –
जैसे तुम मुस्का दी हो,
और फिर
झनझनाकर सब ठहर जाता है –
जैसे तुम लजा गई हो|
बस एक अहसास बचता है –
जैसे
मेरे दाएँ हाथ की
अनामिका के पहले पोर पर
अंकित है
प्रणय का शाश्वत घोषणापत्र !