अनजान षहर / संध्या रिआज़
अनजान षहर में घर बसाने का डर
बहुत गहरा होता है
बसते हैं घर नयी-नयी बस्तियों में
नये-नये षहरों में बेगानों के घर के आस-पास
दिन की टिकटिकी दुपहरी में
अकेले कमरे में
सांय-सांय आती हवा और
हवा के साथ आती आवाजें़
अजीब-अजीब अनचाहे चेहरों की
खुद को और भी अकेला उस घेरे में बंद कर जाती हैं
हवा भी कोई अपना सा ठिकाना ढूंढती
खिड़की से कूदकर भाग जाती है
हर षाम भीड़ के सैलाब में बहता ये षहर
यहां से वहां और वहां से यहां उमड़ता
रात होते-होते ठहर जाता है
टुकड़ों में बंटकर लंगरों में बंध जाता है
घुट जाता है सीमेंट की मोटी-मोटी चादरों के बीच
तब कहीं एक षख्स ढूंढकर ठिकाना
ठहर जाता है
खुद के बनाये ताबूत में बंद हो जाता है
अकेले लावारिस सो जाता है
लेकिन दिल उसका अब भी चाहता है पाना
कोई अपना सा अजी़ज़ साथी पुराना
जिससे सोते-सोते दो-एक बात कर सके
उसका हाथ पकड़ कंधे पे सर रख
थोड़ा सा रो सके
और फिर निष्चिंत हो बंद कर आंखें
डूब जाये रात के आगोष में
पर जब खुलती हैं आंख
बाहर कोई रोता है
जागा हुआ षहर-भागता हुआ षख्स
आवाजों़ का घेरा दौड़ता है
उफ!
ये अनजान षहर
कभी नहीं सोता है
और न कभी किसी का
अपना सा होता है