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अनुबन्ध / रमेश कौशिक
Kavita Kosh से
उखड़ती हुई दिशाएँ
टूटते हुए प्रश्न
नसों में चलती हुई चीटियाँ
भय-आशंका
खाई-खंदक
विस्फोट-चीत्कार
सायरन से नियंत्रित
जन सामान्य का संसार
नहीं नहीं
हमने इधर आने को
नहीं कहा था
किस पर हस्ताक्षर किये थे
वह यह अनुबंध नहीं था