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अन्तर्दाह / पृष्ठ 11 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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लज्जालु झुकी सी पलकें
जैसे जाली मलमल की
छबी - डूबी उनआँखों से
 मानिक मदिरा थी छलकी ।।५१।।

भयभीत चकित हिरनी-सी
थीं चलित कलित मृदु आँखें,
चल चितवन में जादू था
या लगी हुई थी पाँखें ।।५२।।

शशि - मुख पर लंबित केशों
 में नयन इस तरह फिरते ।
मानो सागर - लहरों में
दो मीन मौन हो तिरते ।।५३।।

हाँ, जो शोभा छायी थी
सुमुखी के अहो दृगों में
खंजनों और कंजों में
वह मिलती कहाँ मृगों में ।।५४।।
 
उन अलसायी आँखों में
काजल की रेखा काली
लगती सुरसरि में बहती
ज्यों कालिन्दजा निराली ।।५५।।