भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अन्तर्दाह / पृष्ठ 31 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आ तुझे लगा लूँ उर से
आलिंगन हो इस वन में
फिर सुधा-वृष्टि कर मन में
मस्ती भर दे इस तन में ।।१५१।।

चाहे जितनी मादकता
लेनी हो, ले इस जन से
क्यों हाय,अकिंचन कहकर
तू बिछुड़ चली जीवन से ।।१५२।।"

जा जल्दी चली ओ पावनि !
मेरा संदेश सुनाने
मेरी बुझती ज्वाला को
आ जाना पुनः जगाने ।।१५३।।

मैं तेरी प्रत्याशा में
बैठा - बैठा रोऊँगा
हाँ, आना, देर न करना
भूलना न मैं सोऊँगा ।।१५४।।

वृन्तों में फूल खिले हैं
सलिलों में कमल थिरकते
इस चंद्रमुखी रजनी के
घन - घूँघट आज सरकते ।।१५५।।

क्यों खिझा रही है मुझको
 चंचल तरंग - सी जूही ?
जगती के अणु, कण-कण में
दिखती विभु - सी बस तू ही ।।१५६।।

चंचले तरंगिणि गंगे  !
कलकल निनाद को रोको
उर की विरहाग्नि प्रखर में
अब ईंधन और न झोको ।।१५७।।

झरझर आँसू झरते हैं
कृश तन कँपता थरथर है
व्याकुल वेदना बिलखती
ठोकर खाती दर - दर है ।।१५८।।

आया वसंत मैं क्या दूँ
यह तन-धरती है खाली
स्मिति - मदिरा से भर दो
मेरे ओठों की प्याली ।।१५९।।

सुनयन,नासा, मुख, अलकों
के सदृश वस्तु जब आती
चंचल चपला - सी स्मृति
तब दौड़ हृदय में जाती ।।१६०।।