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अन्धापन फैल चुका है / अर्चना लार्क
Kavita Kosh से
हम कितनी जल्दी में हैं, नष्ट होने को आतुर
हुँकारते, सींग मारते घुसे जा रहे मनमाने
कीचड़ हो गए विचार, बिक गए चौथे खम्भे से
शब्दों के सौदागरों की राय है
कि मनुष्य न बचे रहें
बेशक मन्दी छाई हुई हो
लेकिन झण्डा ऊँचा है
झण्डाबरदार अन्धेरे में तीर चलाते
सम्मोहन के ख़तरनाक पड़ाव के पार हैं
उनकी मृत्यु भी अब स्थगित है
सुना है, अन्धापन फैल चुका है इलाक़े में
बहरेपन ने दस्तक दी है
रिश्तों और विचारों का मातम मन रहा
सच भरभराकर गिर गया है
’हाँ’ को बरी
और ’ना’ को नज़रबन्द किया गया है
अक्षर और शब्द हड़ताल पर हैं
जागो, आगे तुम्हारा भी नम्बर आएगा ।