भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपना काबा एक नहीं था / विशाल समर्पित
Kavita Kosh से
अपना काबा एक नहीं था, अपनी कासी एक नहीं थी
निष्ठुर पतझर के हाँथों से, पूरा जंगल छला गया
कुछ पल ठहरा फिर मुस्काकर, प्रिय वसंत भी चला गया
ऋतुरूपी ख़ुशीयाँ त्रैमासिक, बारहमासी एक नहीं थी
अपना काबा एक नहीं था, अपनी कासी एक नहीं थी
घूम रहे थे उलझे उलझे, रिश्तों के गहन झमेले मे
बेशक बिके नहीं पर हमने, आँसू बेचे मेले मे
हँसकर सबने नज़रें फेरीं, नज़र प्यासी एक नही थी
अपना काबा एक नहीं था, अपनी कासी एक नहीं थी
तुमने याद आयतें की थीं, हमने रटी ऋचायें थीं
हम दोनो के पथ में प्रियतम, ये दोनो विपदायें थीं
अपनी एक अमावस्या पर, पूरनमासी एक नहीं थी
अपना काबा एक नहीं था, अपनी कासी एक नहीं थी