भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपनी मंज़िल से कहीं दूर / साग़र पालमपुरी
Kavita Kosh से
अपनी मंज़िल से कहीं दूर नज़र आता है
जब मुसाफ़िर कोई मजबूर नज़र आता है
घुट के मर जाऊँ मगर तुझ पे न इल्ज़ाम धरूँ
मेरी क़िस्मत को ये मंज़ूर नज़र आता है
आज तक मैंने उसे दिल में छुपाए रक्खा
ग़म—ए—दुनिया मेरा मश्कूर नज़र आता है
है करिश्मा ये तेरी नज़र—ए—करम का शयद
ज़र्रे—ज़र्रे में मुझे नूर नज़र आता है
उसकी मौहूम निगाहों में उतर कर देखो
उनमें इक ज़लज़ला मस्तूर नज़र आता है
खेल ही खेल में खाया था जो इक दिन मैंने
ज़ख़्म ‘साग़र’! वही नासूर नज़र आता है