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अपने-अपने अन्धेरे / स्वरांगी साने
Kavita Kosh से
मैंने चाहा धूप को पकड़ना
वैसे ही जैसे
कोई चाहे सुख को
या अपने प्यारे दोस्त को
मैं नहाती रही गुनगुनेपन में उसके
और टोहती रही अन्धेरा
धूप से दूर मैं कई लोगों के साथ थी
सभी अपने अपने अन्धेरे में क़ैद
ज़रा सी आँच को
मान रहे थे पूरी धूप
मैंने भी झिरी से आती धूप को
पूरी समझा
और बन्द कर किवाड़
सोचा बन्द हो गई वह
जबकि धूप नहीं
बन्द थी मैं।