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अपने भी बेगाने लगते हैं / कमलेश द्विवेदी
Kavita Kosh से
जब-जब हमको अपने भी बेगाने लगते हैं।
हम ख़ुद से ही बातें कर मुस्काने लगते हैं।
जो भी कहना होता है वो
ख़ुद से कहते हैं।
चुप होकर भी कितनी बातें
करते रहते हैं।
कुछ को पागल कुछ को हम दीवाने लगते हैं।
जब-जब हमको अपने भी बेगाने लगते हैं।
जब भी कोई रिश्ता टूटे
तो दुख होता है।
जब भी कोई अपना छूटे
तो दुख होता है।
ऐसे में हम दर्द छिपाकर गाने लगते-लगते हैं।
जब-जब हमको अपने भी बेगाने लगते हैं।
सच पूछो तो कौन यहाँ पर
अपना होता है।
जग भी सत्य न होता
झूठा सपना होता है।
क्या-क्या कहकर हम ख़ुद को बहलाने लगते हैं।
जब-जब हमको अपने भी बेगाने लगते हैं।