भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपने रँग में मुझे रँगा दो / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
					
										
					
					
अपने रँग में मुझे रँगा दो 
श्रद्धा-ज्योति जला कर मन में भव-भय दूर भगा दो
यश की मृगतृष्णा में कातर
भटक रहा हूँ मैं निशि वासर 
मेरा मिथ्या मोह मिटा कर 
सच्ची प्रीति जगा दो
रँगा किया मैं पट ईर्ष्या का
निज को ही सज तिरछा-बाँका
कैसे कहूँ - 'चित्र जो आँका 
उसका मोल लगा दो'
जिसमे धँसे कबीर मस्त बन
किया सूर-तुलसी ने मज्जन 
यही बहुत, उस सर के दो कण 
मेरे लिए मँगा दो
अपने रँग में मुझे रँगा दो 
श्रद्धा-ज्योति जला कर मन में भव-भय दूर भगा दो
	
	