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अपने ही कंधों पर / पुष्पिता
Kavita Kosh से
बहुत बेचैन रहते हैं सपने
दिमाग के कैदखाने में जकड़ गए हैं सपने।
युद्ध की ख़बरों से सैनिकों का खून
फैल गया है मन-मानस की वासंती भूमि पर।
बम विस्फोटों के रक्त रंजित दृश्यों ने
सपनो के कैनवास में रँगे हैं खूनी दृश्य
अनाथों की चीख पुकारों से भरे हैं कान
संगीत की कोई धुन अब नहीं पकड़ते हैं कान।
छल और फरेब की घटनाओं ने
लील लिया है आत्म विश्वास
एक विस्फोट से बदल जाता है शहर का नक्शा
विश्वासघात से फट जाता है संबंधों का चेहरा
कि जैसे अपने भीतर से उठ जाती है अपनी अर्थी
अपने ही कंधों पर।