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अपरिचित / रामावतार यादव 'शक्र'
Kavita Kosh से
आज तक भी मैं अपरिचित,
यदपि इतने दिवस बीते।
1.
खोज कर हारा, न मैंने प्रेम का संधान पाया;
भटकता उन्माद लेकर, और यह क्षणभंगुर काया।
भूल अपने को, किसी की याद में जीवन गँवाया,
किन्तु, अब तक भी उसे उपेक्षित, यह न जाने कौन माया।
बीतते निशि-दिवस मेरे
छिन्न मुक्ताकण पिरोते।
आज तक भी मैं अपरिचित,
यदपि इतने दिवस बीते।