भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अप्प दीपो भव / नन्द 2 / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साँसों में
नन्द की
समाई थी सुन्दरी

मादक क्षण उसके संग
उनको भरमाते थे
चितवन से उसकी वे
मिलने को आतुर हो जाते थे

लगती थी
उनको वह
स्वर्ग-चुई अप्सरी

वह सोनल हिरनी थी
ऋतुओं की घाटी की
महक गझिन सोंधी थी
बरखा में भीग रही माटी की

देह नहीं
वह तो थी
फूलों की वल्लरी

पूनो की रात उन्हें
लगती थी अचरज सी
आती थी सुन्दरी सेज पर
मेघ-ढँके सूरज सी

होतीं थीं
बार-बार
इच्छाएँ बावरी