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अबकी जो गांव जाना / दीपा मिश्रा

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सुनो अबकी जो गांव जाना
तो मेरे लिए एक मुट्ठी धूल ले आना
थोड़ा-थोड़ा मिला दूंगी उनको
अपने छत पर रखे
गमलों की मिट्टी के साथ
तब जब उन मिली-जुली मिट्टी से गुलाब खिलेंगे
तो शायद उनमें कुछ खुशबू
मेरे गांव की होगी

लेते आना कुछ और चीजें भी
अगर थोड़ा समय मिले
चुन लेना कुछ हरसिंगार के फूल
उनके डंढल को तोड़कर
रंग बना लूंगी
भर लूंगी उन्हें कैनवास पर
कुछ आड़ी तिरछी रेखाओं में
टांग लूंगी उन्हें
अपने ड्राइंग रूम में
उन रंगों में मुझे मेरा गांव नजर आएगा

निकाल लेना थोड़ा और समय
बटोर लेना जेबों में अपने
कच्ची सड़क के कुछ कंकड़ भी
रख लेना संभालकर उनको
जब लेकर आओगे
बिखरा दूंगी उनको
अपने घर के सामने की सड़क पर
लगेगा जैसे
मेरे ही गांव की पगडंडी हो

भूलोगे तो नहीं एक और चीज कहनी थी
एक खाली डब्बा साथ रख दी हूं
कुछ दिन तो वहां रहोगे
इकट्ठा करना इनमें सुबह के ओस की बूंदों को
यह मत पूछना उनका क्या करना
चलो जिद है तो बता देती हूं
मूंद लूंगी अपने दोनों आंखों को और लगा लूंगी
कुछ बूंदे उनसे एक ठंडक का आभास होगा
वैसी ही ठंडक जो बचपन में मिला करती थी
जब नंगे पैर ओस पर चला करते थे
शायद उस ठंडक से दिल को कुछ सुकून मिलेगा
रख लूंगी संभाल कर तुम्हारे लाए
ओस से भरी सीसी को
तब के लिए
जब कभी दिल उदास होगा
शायद उनके घर में रहने से
मेरा गांव मेरे पास होगा