भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अबोट गैलो / वाज़िद हसन काज़ी
Kavita Kosh से
म्हैं जोवूं
वो गैलो
जिण सूं होय
म्हैं निकळ जावूं उण पार
आपरी मंजळ कानीं
पण
दीखै नीं म्हनैं वो गैलो
जिणसूं अजै तांई
नीं निसर्यो होवै
कोई बेईमान
कोई परलोटौ
कोई झूठौ
कोई हत्यारौ
कोई पापी
नीं...
नीं मिळै म्हनैं
वो गैलो
तो फेर पकडूं
वो इज गैलो
जिणसूं निसरै फगत ढोर डांगर
जिकौ अबोट है
अछूतौ है
अजै
झूठ कपट
छळ छंद अर
पाप री छियां सूं।