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अब / गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
अब
अच्छा नहीं लगता
दिन-दुपहर का ढलना
अब
अच्छा नहीं लगता
गीली मिट्टी पर
छाप पर छाप बनाते पाँवों का चलना
अब;अच्छा लगता है
ऐंठ मिट्टी में
स्निग्ध घाम का धीरे-धीरे रिसना
अच्छा लगता है
शब्द शब्द में सीझ
कविता की लौ में शाम ढले
घर मजूर के चलना
अब अच्छा नहीं लगता
दिन-दुपहर का ढलना