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अब किसी से डर नहीं लगता / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
भूकंपी गड़गड़ाहट
या अंधेरे की अकेली
चीख़ से
अब कभी भी डर नहीं लगता
अब किसी से डर नहीं लगता
अब सन्नाटा काटता नहीं
सालता नहीं, छीलता नहीं
धमनियों में ज्वार जैसा
ज्वर नहीं लगता
अब कहीं भी डर नहीं लगता
बन गया है लौह प्रस्तर
वह हृदय रोता नहीं
कुछ कहीं होता नहीं
अब किसी का व्यंग
भी नश्तर नहीं लगता
इसलिये अब डर नहीं लगता
अब न कोई घाव
इतना टीसता है
न दर्द कोई पीसता है
न तनाव खींचता है
फण उठाये हर कोई
फणियर नहीं लगता
अब किसी से डर नहीं लगता।