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अब जब सुनते हैं / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
अब जब सुनते हैं तुम्हारी
उबड़-खाबड़ लड़खड़ाती हुई आवाज
जो विवशता के सिवा
कोई अर्थ पैदा नहीं करती है
कितने भी हम कान
ले जायें तुम्हारी जीभ के पास
थोड़े से भी समर्थ नहीं होते
तम्हें समझ पाने में
ये हाथों के इशारे
हवा को इधर-उधर करते हुए
एक साथ अनेक अर्थ पैदा करते हैं
और तुम्हारे सुस्त चेहरे पर
ये ढुलकी हुई नसें
कोई भाव भी पैदा नहीं कर पाती हैं
इतनी सारी विफल वार्ताओं के बीच
लगता है, सिर्फ हाथ फैरते रहे तुम्हारे सिर पर
बस एक ही भाषा बची है यह प्रेम की
हम दोनों के बीच।