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अब तो लगता है / नरेन्द्र पुण्डरीक

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हम लड़कों का प्रिय खेल था
छुपा-छुपौवल
क्योंकि इसमें अक्सर ही
छुपा लेते थे हम
बड़ों की आँखों से
अपनी आँखों के रंग,

हम उन्हें इतना भरमा लेते थे
अपने इस खेल के गुलगपाड़े में कि
बड़ी आसानी से उसमें छुपकर
हमारें खेल में शामिल हो जाती थीं वे लड़कियाँ
जिनके लिए हम खेलते थे छुपा-छुपौवल,

पहली बार जब निकला होगा उनमें से किसी का
औच्चक से प्रेम बाहर
तब निश्चय ही वह कहीं
इस छुपा-छुपौवल में ही छुपा होगा,

जीवन का जहाँ अब कोई रंग नहीं बचा
अपने ही चेहरे को देखकर
धोखा हो जाता है अपने
होने न होने का
वहाँ मन ही मन एक कोनें में
टटका सा रखा होता है
यह छुपा-छिपौवल,

उन्हें और कुछ याद हो न हो
लेकिन यह मैं दावे से कह सकता हूॅं कि
जब भी वे यहाँ आती होगी
उन जगहों में दबी कोर से
देखना नही भूलतीं
जहाँ छुपती थीं वह अपने
ढूँढ़े जाने के लिए,

आप छुपा-छुपौवल को लेकर
कुछ भी कहें लेकिन
प्रेम में लिखी दुनिया की यह
पहली इबारत है
जो अब भी उनके द्वारा
सबसे अधिक पढ़ी जाती है,

इसमें हर बार ढूँढ़ लिए जाने पर भी
जानबूझ कर दाँव देते रहते हैं लोग
इस तरह हम पदने में लगे रहे
वह जाती रहीं एक के बाद एक
अब तो लगता है हमारी
पदने की आदत ही बन गई है
जबकि हमारे लिए छुपने वाला
कोई नहीं बचा है।