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अब नहीं लगती निबौली / नईम
Kavita Kosh से
अब नहीं लगती निबौली-
नीम की
कड़वी कसैली।
ज्वरग्रसित मुँह, जायका बदला हुआ है।
स्रोत रस का, आय का गँदला हुआ है।
चाय तुलसी की
धतूरे-सी लगे
बेहद नशीली।
आसमाँ औंधा हुआ, कुछ छानकर गहरी पड़े हैं,
धर्म के जलपोत तट पर, डालकर लंग खड़े हैं;
हो गए हम भूत
या फिर
हो गई भुतही हवेली?
लाश जीवित कोयले सी, भट्टियों में झौंकते हैं।
पालतू पशु, आदमी ही आदमी पर भौंकते हैं;
डँस गया मुझको ज़माना
साँस
अब मेरी विषैली।