भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अभी भी बचे हैं / मदन कश्यप

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अभी भी बचे हैं
कुछ आख़िरी बेचैन शब्द
जिनसे शुरू की जा सकती है कविता

बची हुई हैं
कुछ उष्ण साँसे
जहाँ से सम्भव हो सकता है जीवन

गर्म राख़ कुरेदो
तो मिल जाएगी वह अन्तिम चिंगारी
जिससे सुलगाई जा सकती है फिर से आग ।