भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अमर शहीदों की थाती है! / राधेश्याम ‘प्रवासी’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ढालों का मृदंग रव इसमें, तलवारों के गान छिपे है,
यह उत्सर्गों की वेदी है, वीरों के बलिदान छिपे है,
यहाँ प्राण तुल गये हजारों सर्वनाश की लौह तुला पर,
मापदण्ड जीवन के आँके गये त्याग आधार शिला पर!

इसमें वह प्रवाह है, जिसमें सपनों का संसार बह गया,
यह कर्तव्य क्षेत्र है, जिसमें यौवन का सिंदूर दह गया,
कितने ही वरमाल सूखकर अंगारों में झुलस चुके है,
कितने दीन निरीह निराश्रय होकर मानव सिसक चुके है!

इन भ्रमरों को नहीं कमल के कोष कभी बन्दी कर पाये,
यह परवशता के सम्मुख आये तो प्रतिद्वन्दी बन आये,
इनकी रण हुंकार, शत्रु को ज्वालामुखी कपाट बन गई,
इनकी रणचण्ड़ी ही अरि को श्मशान का घाट बन गई!

महामृत्यु की छाती पर चढ़, मृत्युंजय वरदान ले लिया,
तुम्हें दे दिया अमृत पर मतवालों ने विषपान कर लिया,
इस प्रदीप में, लाख-लाख परवानों के अरमान मिल गये,
जौहर के नरमेघ यज्ञ में अरे दुर्ग के दुर्ग जल गये!

यह वह चिता भस्म है, जो शिव की सर्वांग वभूति बन गई,
मृतकों को अमरत्व दे दिया प्राणों की अनुभूति बन गई,
यह है वह इन्सान जिसे हैवान नहीं बन्दी कर पाया,
यह है वह चट्टान, मिट गया कभी भूलकर जो टकराया!

कोमल किसलय से शैशव पर बर्बरता है नृत्य कर चुकी,
पैशाचिकता का जघन्यतम दानवता है नृत्य कर चुकी,
जकड़ जंजीरों में नगा कर खाल बेत से खींच दी गई,
विद्रोही मरदानों की क्या निर्मम हत्या नहीं की गई!

यहाँ अहिंसा ने हिंसा पर सौ-सौ बार विजय पायी है,
जंजीरों में क्षमा यहीं पर बर्बरता को कस पायी है,
सत्य त्याग से टकरा करके संगीनों की धार मुड़ गई,
आग उगलने वाले भीषण यन्त्रों की बौछार रूक गई!

इसे संभल कर धारण करना रक्त रंग की रोली है,
राग रंग की नहीं अरे नव मुक्ति रंग की यह होली है,
इसी ज्योति के लिये महा मानव की दग्ध हुई छाती है,
इसे सँजो करके रखना यह अमर शहीदों की थाती है!

अभी शोषणों की रवानी वही है,
अभी जड़ हृदय की जवानी वही है,
बदल गये पात्र सब किन्तु फिर भी
जिसे पढ़ चुके हो कहानी वही है!