अरे कान्हा! / अमरकांत कुमर
अरे कान्हा! नफ़रत ों से
जल रहा हर गाँव
जबकि पूजे जा रहे तुम
हर गली, हर ठाँव॥ अरे कान्हा...
वे तुम्हारे धेनुएँ
पथ हेरतीं हर ओर,
बह रहे हैं आँख से
पीड़ा-सने-से नोर;
गोपियाँ निर्वस्त्र होतीं
दुख नहीं है थोर
रक्त-रंजित शाम होती
रक्त-रंजत भोर।
मुष्टि हैं, चाणूर हैं
तेरा कहाँ है दाँव॥ अरे कान्हा...
कब तुम्हारी मोहिनी
वंशी सुनेंगे लोग,
कब तुम्हारे रास का
रस पा सकेंगे लोग,
कब तुम्हारी ज्ञान-गीता
में तिरंगे लोग,
गोधूलि बेला और
गायों से घिरेंगे लोग।
प्रीति भरिए, हिंस्र गतिविधि
पाएगी ठहराव॥ अरे कान्हा...
जो महाभारत रचाया
थम न पाया है अभी,
व्यूह-फँस कर पार्थनन्दन
बच न पाया है कभी,
अर्धसत्यों की परिस्थिति
झूठ है दिशि-दिशि सभी,
द्रोण की हत्या रूकेगी
तुम कि आओगे जभी।
वाणशय्या पर तड़पते
भीष्म तकते छाँव॥ अरे कान्हा...
तक्षकों से सज गया
फिर खाण्डवी भय लोक,
दे गया है वारणावत
भ्रातृहन्ता शोक,
फैलते आतंक को
लो रोक तो लो रोक,
कुरू- सभा में द्रौपदी
खींची गयी निर्धोक।
क्या बढ़ाओगे नहीं
फिर कंसहंता पाँव॥ अरे कान्हा...