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अर्चना के फूल बासी हो गये / अमरेन्द्र
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अर्चना के फूल बासी हो गये।
व्यर्थ खुशबू को गले मैंने लगाया
कब समन्दर किसकी मुट्ठी में समाया
मैं लगाई हाँक, मेरी हाँक आई
पर लगाई थी जिसे, वह तो न आया
पन्थ, शापित यक्षिणी-सी, मैं निहारूँ
तुम प्रवासी थे, प्रवासी हो गए।
रात का तम है कि काला नाग है यह
चाँदनी लगती जहर का झाग है यह
आज मेरी साँसों के शीतल पवन में
लपट लेती, मलयगिरि की आग है यह
मैं तो पथ की ही अहिल्या-सी रही
और तुम कैलाश-काशी हो गए।
कौन-सी सुधि है पुरानी आ गई ं, जो
भावना सन्यासिनी बहका गई, जो
बाँधता तुमको नहीं रसमय निमंत्राण
सोच लो, यह याचना पथरा गई जो
कल शिखर पर फूल न कोई खिलेगा
जो, प्रभाती से उदासी हो गए।