अलगाव. / केशव
जब-से उड़ने लगा है जहाज़
उड़ गये हैं पँछी
किसी अनजानी दिशा में
जब भी होता है
इंजन का शोर
बरना पड़ा रहता ह्अइ आसमान
ठंडे इस्पात के टुकड़े-सा
और हर दृष्य
किसी दुर्घटनाग्रस्त गाड़ी-सा
यूँ तो सूरज भी उगता है
पर दिन भर कुर्सी पर बैठा
करता रहता है
फाईलों पर हस्ताक्षर
और साँझ को झुर्रियों भरा
चेहरा लिये
आ बैठती ह्अइं पत्नी के माथे की सलवटों में
साँझ बहुत देर तक
किसी धुँधली इबारत-सी
खड़ी रहती है
दिन के कटघरे में
फिर ताँबे के काले पड़ गये
सिक्के जैसी
चलने से पहले ही
किसी दुकानदार के गल्ले में
गर्क हो जाती हैं
रात भी होती है
जो असल में ही सच होती है
सबके लिये
जिसमें परछाईंयाँ रात गये तक
करती रहती हैं एक-दूसरे का पीछा
जैसे भटके हुए चमग़ादड़
बदलते रहते दृष्य
चलते-रहते चित्र
आदमी पाँचवे टायर-सा
पड़ा रहता है
फिर से अपनी बारी की प्रतीक्षा में।