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अलस / कमलकांत सक्सेना

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पावों से चढ़कर, सीने तक धूप आ गई!
तन अब तक बेसुध, अलस अपरिचित समा गई!
अंग अंग शीशमहल-सा चटक रहा
सृजन स्वर आज कंठ में अटक रहा
थपकी दे देकर बिस्तर तक हारा
मन जाने किस दुविधा में भटक रहा?
आवाज चेतना कानों को अनसुना गई.
तन अब तक बेसुध, अलस अपरिचित समा गई!
जागे अनजागे ऊग रहे सपने
कुछ तो भूले कुछ याद रहे सपने
कागज की रेखा विश्व नहीं होती
फिर भी आश्वासन बांध रहे सपने।
चमक रहे मोती, तारों में धुंध छा गई.
तन अब तक बेसुध, अलस अपरिचित समा गई!
दीर्घकाल से बंधे हुये हैं धागे
सोच सोच कर हारे हाथ अभागे
कभी धर्म, दर्द कभी अवरोध बनाएँ
जोर नहीं चलता परवशता आगे।
बहरी बस्ती में, मधु आकर खिलखिला गई.
तन अब तक बेसुध, अलस अपरिचित समा गई.
अब या तो हो जाये घना अंधेरा
या फिर किरण धरा पर डाले डेरा
लुका छिपी का खेल बुरा है सचमुच
साफ साफ हो जाये सजल सबेरा।
समय हुआ, कविता जीवन का गीत गा गई.
तन अब तक बेसुध, अलस अपरिचित समा गई.