भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अवसर की बात / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
अपनी कहता हूँ, मुझको तो बात दूसरों
की कहने का कानूनन अधिकार नहीं है,
लोकतन्त्र का युग है अब तो इधर ऊसरों
पर सुखदायी शीतल धारासार नहीं है,
उधर राजलक्ष्मी न ताकती विभव नहीं है,
जिधर । न पूछो, अजी, बड़ों की बात बड़ी है,
लाख लीख हो जाए तो निस्तार नहीं है,
फूल धूल से रच देने की शर्त कड़ी है,
लोग समझते नहीं — सवारी कहाँ अड़ी है,
बड़े-बड़े मसले हैं, यह करना, वह करना,
सुप्त समुद्री चट्टानों से नाव लड़ी है —
गान्धी-टोपी, राजकाज को सिर पर धरना
सरल नहीं है । सुनता हूँ — कहता हूँ हंसकर
बहकी बातें करो दूसरों को बहका कर !