अशोक वन में / प्रतिभा सक्सेना
बीती थी आधी रात चाँद नभ पर था, चाँदनी सफ़ेदी पोत रही थी भू पर,
अँधियारा छिपा हुआ था छायाओं में, आँखें खोले तारे तकते थे ऊपर!
सीता अशोक-वन में बैठी एकाकी, क्या सोच रही थी यह तो वह ही जाने,
दूरी पर पहरा देती थीं निशिचरियां, हो सावधान करवाल हाथ में थामें!
फिर अनायास निशिचरियां चौक गई थीं, इस अर्ध-रात्रि मेंरावण की पटरानी,
आ रही यहां बन्दी सीता से मिलने, जाने समाप्त कैसे हो सखी, कहानी!
धीरे-धीरे पग धरती, महिमा-मंडित, गौरव गरिमामयि सौम्यदर्शना नारी,
राजसी वेश पर मुख पर गहरी छाया, जैसे कि समस्या सम्मुख हो अति भारी!
बोली, 'कि दूर जाकर तुम करो प्रतीक्षा, मैं हूँ कि तुम्हारी नहीं जरूरत कोई '!
सिर झुका-झुका वे चली गईं ओझल हो, तब मय-तनया सीता के सम्मुख आई!
भू-कन्या ने तब दृष्टि उठाकर देखा, शीतल हो उठा अचानक ही अंतस्तल
वे चार नेत्र कुछ देख रहे थे अपलक, कुछ पता नहीं यों बीत गये कितने पल!
जो बिछे पडे थे उन अशोक-पत्तों पर, मन्दोदरि बैठ गई सीता के सम्मुख!
आवेग उठा आगे बढ हृदय लगा लूँ, अब तो पा लूँ पुत्री से मिलने का सुख!
मन्दोदरि बेटी थी सीता के सम्मुख, जैसे कि शान्ति आ बैठे दुखी हृदय में,
दो नेत्र अपार स्नेह करुणा परिपूरित, आश्वस्ति दे गये सीता को उस भय में!
द्विविधा में मयकन्या कि किस तरह बोलूँ,
किस तरह करूँ आरंभ यहाँ संभाषण,
जिससे कि शान्त हो सके दुखी औ तापित
मुझसे उन्मुख हो सके तनिक उसका मन।
विश्वास किस तरह कर पायेगी सीता,
लंकापति जैसे हर लाये हैं छल से,
इस समय सहानुभूति मुझसे हो जाये,
ऐसा उपाय कुछ करूँ बुद्धि के बल से।
अपनी संतति से ही कुछ बात बना कर,
माँ को कहनी पड़ जाती जो हित कर हो,
रावण पर थोड़ा दोष लगाने से यदि,
इसका मन थोड़ा सदय अगर मुझ पर हो!
विश्वास जीत लूँ किसी तरह सीता का
धीरे धीरे सारे ही सच समझेगी
यों दशमुख भी तो नहीं दूध के धोये,
थे विरत कहाँ पहले पर-नारी से भी
तब मनस्ताप कितना दुख कर होता था
सौभाग्यशालिनी अब उतनी ही हूँ मैं,
इतना विशाल उर, इतना महिमा मंडित,
यह विरल पुरुष पा धन्य हो गई हूँ मैं!
हो पाप क्षमा, पति की निन्दा सीता से,
करनी होगी दुख दर्शाने को अपना,
माँ का मन पुत्री का मन मिल जाये तो,
वात्सल्य पिता का भी न रहेगा सपना!
चुपचाप देखती रही सोचती-सी कुछ, फिर करुणा भरी स्मिति अधरों पर जागी,
"सीते मै तेरी व्यथा जानती हूं पर, कर सकी न कुछ भी मैं बेबस हतभागी!
मन आकुल- व्याकुल सा रहता है प्रतिपल, मुझको भी नींद न पडती अब रातों में!
मन हुआ कि हम दो समदुखिनी मिल बैठें, कुछ समय बिताएं आपस की बातों में। '
चुप रही मैथिली कुछ अनुभव करती सी, कुछ लहर उठी भीतर-भीतर कुछ उमड़ा!
कुछ चिर-परिचित अपना-सा लगा न जाने, आवेग हृदय से उठा कंठ मेंठहरा।
पाटाम्बर पवन झोंक से उड लहराया, सीता के निकट उडा आँचल का कोना,
वह देह-गन्ध जैसे सीता की उपनी। वह परस लगा जाने कितना पहचाना!
अपने भावों पर करती हुई नियन्त्रण, दोनो चुपचाप रहीं क्षण बीत रहे थे,
क्या बोलूं द्विविधा थी दोनो के मन में, वे चार नेत्र रह-रह कर देख रहे थे!
मन्दोदरि थोड़ा हिली, खनक नूपुर की, सीता की दृष्टि वहीं पर जाकर ठहरी,
यह लगा कि अपना ही पग देख रही हूं वह सोच रही-सी दृष्टि हो उठी गहरी!
इतनी अशान्त मैं विचलित हो जाती हूँ, पर किससे जाकर कहूँ व्यथा की गाथा?
रावण की पटरानी हूँ लेकिन सीते, मुझको अपना ही जन्म भार बन जाता!
गंधर्व, देव, नर, नागों की सुन्दरियाँ, जिनको मेरा पति छल-बल से हर लाता,
अपने शयनागारों में कितनी रातें, मदमत उन्हे ही भोग तुष्टि वह पाता!
निज प्रबल शक्ति का मद, अजेय पौरुष का, फिर भोगमयी यह रक्ष संस्कृति सारी,
फिर भी, रुचि के अनुकूल यहाँ जीती है रक्षों में पर-आधीन नहीं है नारी!
तुम दुख में एकाकी बैठी इस वन में,मुझसे ही कुछ कह लो अन्यथा न समझो,
सम-दुखिनी हूँ, वय में भी बहुत बडी हूँ, निरुपाय बहुत मैं, अपराधी मत समझो!
तुम करो राम की बात तुम्हारे अनुभव, संभव है मेरी मनोव्यथा कम कर दें,
व्यवहार तुम्हारा और तुम्हारे पति का संभव है थोडी शान्ति हृदय मेंभर दे!"
अब तक चुप थी, पर मुखर हो गई सहसा, जब बात राम की आई तो वह बोली,
"कैसे समझेगा कोई प्रीति हृदय की, वह गूढ सत्य कैसे समझेगा कोई?
आदर्श पुरुष मैंनें उनको ही जाना, ऋषिपत्नी को अकलंक उन्होने माना,
मर्यादा अपनी कभी नहीं त्यागेंगे अब तक जितना भी है मैने पहचाना!
जगती में मैने इतना शान्त, विवेकी, इतना अविचल व्यक्तित्व न कोई पाया,
मेरे निर्णय को उचित मान्यता देकर उन ने मेरा क्या, अपना मान बढ़ाया!
ध्रुव-सत्य यही है राम सदा मेरे हैं, अतिरिक्त कामना और न मै कर सकती!
पाया है इतना नेह जतन जीवन मेंसारा जीवन उसके बाँटे धर सकती
सबके प्रति निर्मल स्नेह हृदय में उनके, इसलिए सभी वन में उनके अनुरागी,
पुरुषोत्तम हैं वे! और कौन बतलाओ, इतना संयत मर्यादित, निस्पृह, त्यागी?"
इस तरह अपरिमित शौर्य़, शील, सुन्दरता जिस तन मेंआकर एकाकार हुई है,
उस पर स्वेच्छा से एक पत्निव्रत धारे, त्रिभुवन में ऐसा पुरुष कहीं कोई है?"
त्रिभुवन तक? लंका में ही पा जाओगी चुपचाप सोचती मन्दोदरि मुस्काई,
है यहाँ इन्द्रजित-सचमुच इन्द्रियजित ही, स्वेच्छया पत्निव्रत धरे, तुम्हारा भाई!
गुण-शौर्य-रूप में अनुपम कृती-व्रती वह, मेरा ही पुत्र, रत्न स्वर्णिम लंका का,
तुम कभी स्वयं ही जानोगी-समझोगी, कारण न रहेगा तब कोई शंका का!
वात्सल्य हृदय में उमड़ा जी भर आया,हो उठी विकल अपने ही सुख से, दुख से:
वह मौन देखती रही, सोचती, सुनती, वाणी निस्सृत होती सीता के मुख से!
"माता से पिता विदेह कहा करते थे मेरी पुत्री को निभा सके ऐसा वर,
क्या पता मिलेगा कहाँ कि धरती पर तो देखे हैं अब तक मैने साधारण नर!
पर देख राम को धन्य हो गए थे वे, मैं भी विभोर हो गई प्रथम दर्शन में,
नीरज-नयनो से निस्सृत प्रेम-सुधा ने अभिषेक कर दिया था मेरा उस क्षण में!
उनकी वह दृष्टि याद में आकर अब भी पुलकित कर देती मेरे तन को, मन को,
यह लगा कि ऐसे पुरुषोत्तम को वरना, सार्थक कर देगा इस नारी जीवन को!
आपस में खूब पढ़ा इक दूजे का मन, इतने लंबे वनवासकाल में हमने,
वरदान लगा मुझको तो निर्वासन भी, निष्ठामय पत्नीव्रत के उनके प्रण में!
क्षण भर में त्याग दिया जिसने सिंहासन, निस्पृह होकर वनवास ले लिया जिसने,
जिसको विचलित कर सका न कोई रण में, मेरे प्रति प्रीति अगाध राम के मन में!
उनका सन्देशा पवन-पुत्र लाए थे, साक्षी है यह मुद्रिका राम की भेजी,
यद्यपि मैंनें लक्ष्मण रेखा लांघी थी, पर घोर अनैतिकता थी लंकापति की!"
"किस नैतिकता की बात कर रहीं सीता, लंकापति पर भी आगे दोष न धरना,
जो चंद्रनखा के साथ किया दोनों ने, उसका प्रतिकार उन्हें भी तो था करना!
रावण की भगिनी हो या कोई नारी ऐसा गर्हित व्यवहार किया जाएगा,
तो लक्ष्मण रेखाएं कितनी भी खींचें, फिर भी समुचित उपचार किया जाएगा!
'हाँ, अपर पक्ष को अपमानित करने का, उनने तो माध्यम बना लिया नारी को,
ऐसा कुत्सित आचरण शोभता है क्या, गंभीर और मतिधीर शस्त्रधारी को?"
कुछ रुकी, सोचकर फिर बोली मय कन्या, मैं भी कह डालूं अपर पक्ष भी समझो,
भिन्नता भरे जग में सबका अपना पथ, सम्मान सहित औरों को भी जीने दो!
'ऋषि-पत्नी को अकलंक मानते थे,तो फिर क्यों उद्धार किया पाँवों से छू कर?
पापी, प्रपञ्च में लिप्त सुरों का अधिपति, जिनके हित-साधन करते राम धरा पर!
उस माता सम ऋषि-पत्नी को यों पाँवों से न छुआ होता,
निर्दोष साध्वी तपःपूत, वाँछित सम्मान दिया होता,
'अपराधी विषयी शक्र, झुका मैं क्षमा-याचना हेतु राम,
प्रातः स्मरणीया, कन्या सम पावन-माँ, लो मेरा प्रणाम!'
उस प्रवंचिता नारी को गरिमा देने का करते प्रयास,
तो सीते, उनके सम्मुख मैं भी नत हो जाती अनायास!
वैदेही चुप हो गई किन्तु मन ही मन कुछ उलझ गई उन प्रश्नों के उत्तर में,
मान्यता भिन्न है दोनो संस्कृतियों की, पर प्रचुर तर्क हैं मय-कन्या के स्वर में!
"तुम क्षमा करो तुमको दुख पहुँचा सीता, इसका भारी पछतावा मेरे मन में,
पर कभी अकेले पास तुम्हारे आए? मर्यादा क्या तोड़ी है मेरे पति ने?
तुमने संसार अभी देखा ही कितना, देखो-जानोगी तभी समझ पाओगी,
फिर भी तटस्थ होकर यदि सोच सकीं तो, अंतस्थ सत्य को स्वयं जान जाओगी!"
मन्दोदरि के अंतर में ममता उमड़ पड़ी भर उठे नयन,
बोली, 'मन शान्त करो सीते, बीतती रात है करो शयन!'
"हूँ, शयन? यहां निद्रा कैसी रिपु के पुर में विश्राम कहां?
नारी होकर मारी मन का कर सकी न तुम अनुमान यहाँ। "
"कैसे समझाऊँ तुमको मैं, जो तुम समझीं केवल भ्रम है,
हम दोनों का ही स्नेह तुम्हारे प्रति क्या रहा कभी कम है
अच्छा चलती हूँ सीता, त्रिजटा सेवा में प्रस्तुत हरदम,
इसके कारण कुछ शान्त हो सके तेरा यह उद्वेलित मन!!"
प्रत्यूष काल, पूरव का छँटने लगा तिमिर,
उजलाते नभ में उड़ते हुये खगों के स्वर!
त्रिजटा अशोक-वन में आई, सीता की सेवा में प्रस्तुत,
पर वैदेही नत-नयन किये बैठी है यहाँ आत्म-विस्मृत!
तन्मयता भंग न कर, त्रिजटा हो खड़ी शान्त, तरु-तल में आ,
पावन संगीत-पान करती, आगमन न जान सकी सीता!
वह ध्यान-लीन हो बैठी थी, बस कान लगाये हो कर स्थिर,
उपवन में जो गुँजरित हो रहे प्रात:कालिक स्तोत्र मुखर!
उन श्लोकों में झंकार रही थी भक्ति भरे उर की पुकार,
वीणा की झंकृति और, उदात्त भावनाओँ का समाहार!
ऊपर अशोक की डालों पर, आ बैठे खग कलरव करते,
सीता स-चेत कुछ हुई डोलते पातों की उस मर्मर से!
त्रिजटा को निकट खड़े पाया, करते अभिवादन सुप्रभात,
कर-तल से इँगित कर बरजा, मुख से न करो कुछ अभी बात!
चुपचाप निकट आ बैठ गई, जैसे देती हो संरक्षण,
वैदेही फिर से तन्मय, भरने लगी हृदय में भक्ति-सुमन!
स्तोत्र- (रावण-रचित शिव-स्तुति से)
"दृत्षद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकम्स्रजो
र्गरिष्ठरत्न लोष्टयो:सुहृद्विपक्षपक्षयो:!
तृणारविंद चक्षुषो:प्रजा महीमहेन्द्रयो:
समंप्रवर्तयन्मन: कदा सदाशिवं भजे!
कदा निलिम्प निर्झरी निकुँज कोटरे वसन्
विमुक्त दुर्मति:सदा शिर:स्थमंजलिंवहन्!
विमुक्त लोल लोचनौ ललाम भाललग्नक:,
शिवेतिमंत्रमुच्चरन् कदासुखी भवाम्यहम्!"
"कितनी गहरी निष्ठा, कितना निश्छल मन औ कितना सुबुद्ध,
स्वर गहन नाभि-तल से उठता, यह किसकी प्रखर पुकार शुद्ध!"
"स्व-रचित स्तुतियाँ गाता यह, वीणा-प्रवीण, संगीत-निपुण,
यह आत्म-निवेदन साधक का जो अर्पित करता भक्ति-सुमन!"
"निर्लिप्त और निस्संग निवेदन? पड़ी हुई मैं शंका में,
सात्विक मन का श्रद्धा पूरित यह नि:स्व समर्पण लंका में?"
तमकी त्रिजटा, "बस कपटी और अधम ही लंका में बसते,
सारे शुभ-भावों पर अधिकार अयोध्या का इस धरती पे?
पर राजकुमारी, छोड़ो वह सब तुम न मान पाओगी,
और विलक्षण साधक? उसको कभी जान जाओगी!"
देख खिन्नता त्रिजटा की उससे कुछ और न पूछा,
दोनों चुप्प, बीच में पसरा सन्नाटा अनबूझा!
उस रात अचानक फिर आई मय-कन्या, बोली कि भवन में उचट रहा मेरा मन,
'मैं रही सोचती सीता, जानूँ यह भी, कैसे बीता है मिथिलापुर में बचपन!'
'हाँ बहुत स्नेह पाया था तात जनक का, माँ ने भी सबसे बढ़कर मुझको माना,
बहिनो ने पूरा आदर-स्नेह दिया, पर मुझको लगता था सब कुछ अनपहचाना!
'पलकों की ओट न होने देते थे वे, मुझको ही अपना नाम दिया वैदेही,
इससे बढ़कर वे कर भी क्या सकते थे,जब जनक-सुता जानकी रही बस मैं ही!
शस्त्रों से लेकर सारी ललित कलायें अर्जित करवाईं ज्ञान और विद्यायें,
मुझमें जो घटता उसे समझते थे वे, हैं मुझे याद वे सारी ही संध्यायें। ,
'हर वयोवृद्ध नारी के मुख में तब भी, अपनी माता का मुख ढूँढा करती थी,
उठती पुकार हर समय हृदय में," ओ माँ", मै मुक्त मना हो कभी न रह पाती थी।
एकान्त कक्ष जिसमें वह कलश धरा था, मै आकर्षणवश फिर-फिर वहीं पहुचती,
उन वस्त्रों को छू कर कितना सुख मिलता, मस्तक बाहों से घेर कलश पर धरती!'
(वह छुअन मिली मन्दोदरि के आँचल मे,आश्वस्त होगई तब वैदेही सीता,)
'पाती समेट क्या रिक्त सदा की थी मैं, जो स्मृति शेष रह गया सभी कुछ बीता!
अपनी ही जन्म-कथा पर सोचा करती, मैं कौन? किसलिये? ऐसे क्यों आई हूँ?
मै सचमुच हूँ धरती पर चलती-फिरती, या अपने में ही सिमटी परछाईं हूँ?
"वन-वन भटकी, कैसी उत्कण्ठा लेकर, शायद कुछ अनायास ऐसा हो जाये,
"मेरी पुत्री," कह स्नेहिल हाथ बढ़ाये मेरी जननी सामने खड़ी हो जाये!
आकाँक्षा मेरी काश पूर्ण हो पाती, मुझको जननी औ जनक काश मिल जाते,
तो मेरी भटकन एक लक्ष्य पा लेती, मेरे जीवन को नये अर्थ मिल जाते!
त्रिजटा माता ने कहा कि निश्चय सीते, तुमको जननी औ जनक अवश्य मिलेंगे,
बीतेगा शंकाओँ का युग अब सारा, अब सहज स्नेह संबंध नये विकसेंगे!
आँसू झरते नयनो से मय-तनया ने आगे बढ़ कर सीता को कण्ठ लगाया,
"सचमुच मैं तेरी जननी हूं ओ, पुत्री! मैनें भी अब तक क्षण भर चैन न पाया!"
सीता व्याकुल सी आ लिपटी उस तन से,गोदी में ले बैठी लंका की रानी,
कितनी-कितनी बातें करनी थीं उनको, कुछ आँसू कह देते, कुछ कहती वाणी!
फिर दोनों चुप हो गईं तुष्टि का अनुभव, करते थे दोनों हृदय देर तक यों ही,
जब विगत हो चली रात्रि सचेत हुईं वे, उस नये प्रात की बात कहे क्या कोई!