भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
असली चेहरा याद नहीं / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
भीतर से तो हम श्मशान हैं
बाहर मेले हैं ।
कपड़े पहने हुए
स्वयं को नंगे लगते हैं
दान दे रहे हैं
फिर भी भिखमंगे लगते हैं
ककड़ी के धोखे में
बिकते हुए करेले हैं ।
इतने चेहरे बदले
असली चेहरा याद नहीं
जहाँ न हो अभिनय हो
ऐसा कोई संवाद नहीं
हम द्वन्द्वों के रंगमंच के
पात्र अकेले हैं ।
दलदल से बाहर आने की
कोई राह नहीं
इतने पाप हुए
अब पापों की परवाह नहीं
हम आत्मा की नज़रों में
मिट्टी के ढेले हैं ।