आँखों के घर में / पुष्पिता
रात भर
आँसू लीपते रहते हैं
आँखों का घर
अँगूठा लगाता है
ढांढस का तिलक
हथेलियाँ आँकती हैं
धैर्य के छापे
जैसे
आदिवासी घर-दीवारों पर
होते हैं छापे और चित्रकथा
उत्सव और मौन के संकेत चिन्ह
सन्नाटे में
सिसकियाँ गाती रहती हैं
हिचकियों की टेक पर
व्यथा की लोक धुनें।
कार्तिक के चाँद से
आँखें कहती रहती हैं
मन के उलाहने।
चाँद सुनता है
ओठों के उपालम्भ
चाँद के मन की
आँखों में आँखें डाल
आँखें सौंपती रहती हैं
अकेलेपन के आँसू
और दुःख की ऐंठन।
अनजाने, अनचाहे
मिलता है जो कुछ
विध्वंस की तपन
टूटन की टुकड़ियाँ
सूखने की यंत्रणा
सीलन और दरारें
मीठी कड़ुआहट
और जोशीला ज़हर
तुम्हारे 'होने भर के'
सुख का वर्क लगाकर
छुपा लेती हूँ सबकुछ
फड़फड़ाती रुपहली चमक के आगोश में
आँखों के कुंड में भरे
खून के आँसूओं के
गीले डरावनेपन को
घोल देती हूँ तुम्हारे नाम में
खुद को खाली करने की कोशिश में
जहाँ तुम्हारा अपनापन ठहर सके
ठहरी हुई आत्मीय छाँव के लिए।