भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आँधी / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
कटखनी कर्कश हवायें
दे रहीं आवाज़
घर के द्वार
सारे बज रहे हैं।
कोशिशों के बावजूद
बंद हो पाती नहीं
प्रबल झंझावात
के खाकर थपेड़े
खुल रही हैं खिड़कियां
तोड़कर कांच
आँधी घुस रही भीतर
लेकर ढेर सा गुबार
दृष्टि ध्ंाधली हो रही है
भर गया है मुंह सारा
धूल से, किरकिराता
बज रही हैं सीटियां
दे रहा दस्तक कोई, मेरे किवाड़ों पर
मैं आतंकित
कैसे खेलूं द्वार
ये संस्कार मेरे बरजते हैं।