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आँसुओं की लिपि में डूबी प्रार्थनाएँ / प्रेमचन्द गांधी
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सूख न जाएँ कण्ठ इस कदर कि
रेत के अनन्त विस्तार में बहती हवा
देह पर अंकित कर दे अपने हस्ताक्षर
साँस चलती रहे इतनी भर कि
सूखी धरती के पपड़ाए होठों पर बची रहे
बारिश और ओस से मिलने की कामना
आँखों में बची रहे चमक इतनी कि
हँसता हुआ चन्द्रमा इनमें
देख सके अपना प्रतिबिम्ब कभी-भी
देह में बची रहे शक्ति इतनी कि
कहीं की भी यात्रा के लिए
कभी भी निकलने का हौसला बना रहे
होठों पर बची रहे इतनी-सी नमी कि
प्रिय के अधरों से मिलने पर बह निकले
प्रेम का सुसुप्त निर्झर ।