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आँसू / रंजना गुप्ता
Kavita Kosh से
ढूंढ कर लाया है बादल
वो गिरा आँसू तुम्हारा..
द्वन्द की ये संधियाँ
संलाप की ये चुप्पियाँ..
एक पूँजी पति न जाने
बन गया क्यों सर्वहारा..
पृष्ठ अंकित है पुराने
रक्त स्याही के बहाने..
खुल गए है घाव सारे
दर्द का जर्जर किनारा …
कसमसाती वर्जनाएँ
तोड़ देती अर्गलायें...
आ ही जाती रौशनी
यदि ले दरारों का सहारा…
धुँध की चादर पड़ी है
एक मुश्किल की घड़ी है..
क्या हुआ जो व्यर्थ सारा
हो गया जीवन तुम्हारा ..?
बात केवल प्यास की थी
चुक गए विश्वास की थी..
टूट कर चाहा जिसे.
वह बन गया है सिंधु खारा ..