भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आईना भी मुझे बरगलाता रहा / ललित मोहन त्रिवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ग़ज़ल
आईना भी मुझे , बरगलाता रहा !
दाहिने को वो बाँया दिखाता रहा !!

दुश्मनी की अदा देखिये तो सही !
करके एहसान, हरदम जताता रहा !!

तार खींचा औ ' फिर छोड़कर,चल दिया !
मैं बरस दर बरस झनझनाता रहा !!

उसने कोई शिकायत कभी भी न की !
इस तरह से मुझे वो सताता रहा !!

मुझको मालूम था एक पत्थर है वो !
आदतन पर मैं सर को झुकाता रहा !!

ना फटा,ना बुझा, मन का ज्वालामुखी !
एक लावा सा बस खदबदाता रहा !!

देखिये तो "ललित "की ये जिद देखिये !
पायलें , पत्थरों से, गढ़ाता रहा !!