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आईने पर बिंदी / अमलेन्दु अस्थाना

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अब जबकि तुम रूठकर जा चुकी हो,
दीवार और आईने पर चिपकी तुम्हारी बिंदियों के पीछे
आकार ले रहा है तुम्हारा चेहरा,
तुम्हे टटोलती दीवारें खामोश हैं,
तुम्हे पा लेने के भ्रम में खिलखलिाती हैं
फिर मौन हो जाती हैं,
रात गहरा रही है, हवाएं लिपट रही हैं पेड़ों से,
इधर तन्हा चादरों पर मेरे सिरहाने का तकिया उदास है
घर में बत्तियां रौशन हैं फिर भी अंधेरा है,
इत्र की बोतलें नाकाफी हैं तुम्हारी खुशबू के आगे
घर खरीद लेने से घर नहीं होता,
तुम धड़कती हो इसकी धमनियों में,
दरवाजे पर जहां तुमने स्वास्तिक बनाया है
बंदनबार के नीचे मैंने चिपका दिया है माफीनामा,
तुम मायके से आओ, भर दो घर खुशियों से।।