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आकर्ष / निशांत-केतु / सुरेन्द्र ‘परिमल’

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माण्डवी मनोहर मूर्ति
भरत के दिल के कोना में।
-पूरे अनहोना होना में।
अभिलाष एक गदरावै छै
सिय-राम-लखन मन आवै छै-
श्रीचरण कमल देखो तत्क्षण
खोलों विषाद, बोलों उलझन।

छै बहुत बात मन के भीतर
हम मिलना चाहै छी सत्वर।
हम पिता वचन कें मानै छी;
आज्ञा नै हुनकोॅ टालै छी।

हे मुनि वशिष्ठ! तों साथ चलोॅ
कुछ हमरा पर उपकार करोॅ।
श्रीराम-चरण कें हम गहवै,
रज-तिलक धारि वन में रहबै।

कहबै, तों राज-भार धारोॅ
कंटकाकीर्ण कें मत मारोॅ।
मुनिश्रेष्ठ तिलक हुनकोॅ करतै;
ई राजमुकुट शिर पर धरतै।

द्विज-वृन्दव्रती सब तपी चलोॅ;
नै देर करोॅ, बस अभी चलोॅ
गुरुदेव चरण कें छूबै छै;
दू बूँद आँखी से चूबै छै।

नव कनक कुसुम, नत मधुर भार,
उर में तरंग, हुलसित अपार;
आँचल सहेज घूँघट उतार,
उच्छ्वसित गात, युग चरण द्वार।

पुलकित रोमावलि के आरती थाल;
दृग प्रभापूर्ण, वर्त्तिका वाल,
गुमसुम आतुर कुछ बोलै छै;
डब-डब आँखी कुछ खोलै छै।

माण्डवी शिलावत, मूक-मग्न विस्मय में
रसमय दर्शन यें तृप्त, मूर्ति-मंगल उर में।

छै खड़ी देव के चरण-कमल-रज अभिलाषी
साक्षात देखि के उच्छवासी।

हम जनम-जनम के पद-दासी,
द्युति मंडित, तन्वंगी मृदुभाषी।
जन-पालक, जगहित गेह त्याग
दृढ़मना सदैव हृदय-वासी।

मृदु मंद चरण रून-झुन रून-झुन
संदेश गहन कुछ सुन-सुन-सुन

भीजैं छै भरत स्नेह-वर्षण में
कुछ तार-तार, ढीलोॅ नव आकर्षण में।

सब लोग दरश के आस भरल;
अपनोॅ रथ-वाहन उपरि चढ़ल;
श्री राम राम! जय राम राम!
-मुखरित दिगंत अभिराम नाम।

शत्रुघ्न हृदय अद्भुत उछाह।
चललोॅ छै सब निर्विघ्न राह।