आकाशगंगाओं के पार / कुमार मुकुल
अन्तरिक्ष की पतंग
जब डूब रही है पश्चिम में
सैकड़ों पतंगें
उड़ने लगी हैं
पटपड़गंज के आकाश में
बहुमंजिली सोसाइटियों से घिरे
इस निम्न-मध्यवर्गीय इलाके में
जैसे उत्सव है आजकल पतंगों का
इस समय
जब सोसाटियों के बच्चे
जूझ रहे होंगे
टी.वी., कम्प्यूटर से
ये उड़ा रहे हैं पतंगें
ऊँची उड़ रही हैं पतंगें
तमाम सोसाइटियों से ऊँची
मन्दिरों-मस्जिदों-गुरुद्वारों से ऊँची
राधू पैलेस से भी ऊँची
पतंगों की डोर खींचते बच्चे
ख़ुशी और उत्साह से भरे
चीख़ रहे हैं
चिल्ला रहे हैं
अजानों व कीर्तनों स्वरों को मात देते
अपनी-अपनी छतों से
अपने भाई-बन्धुओं-बहनों-प्रेमिकाओं के साथ
कभी-कभी
कोई पतंग कटती है
तो उठता है शोर
तमाम छतों से
और गूँजता खो जाता है कहीं
आकाशगंगाओं के पार
फिर,
अपने नीड़ों की ओर लौटते
तेजी से डैने मारते
पखेरूओं के साथ
उतरने लगती हैं
पतंगें भी
नीचे।