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आखर लीला / संजय आचार्य वरुण
Kavita Kosh से
म्हारी डायरी में
म्हारै हाथां सूं
बिछायोड़ा
आखरां में
कदे कदे
म्हनै दीखै
म्हारौ खुद रौ उणियारौ।
कदे कदे
जद आसै पासै
कोई नीं हुवै
तो म्हारै गीतां अर कवितावां रा
सबद
खूंटा तोड़ाय
बारै आय
हवा में तिरण लाग जावै।
म्हारै कमरै में
आखर ही आखर
जाणें
गोठ मनावण ने
भेळा हुया हुवै
मात्रावां अर व्याकरण रै
छन्द अर ‘मिटर’ रै
बधन सूं
मुगत होय
सुतन्तरता सूं
आखर
खूब राफड़ घालै
नाचै हंसै
अर खेलै
लुकमीचणी
म्हारै ऊपर।
जोर जोर सूं
जांण बूझ
बेसुरा होय गावै
उणीं’ज गीतां ने
जिण सूं
बै निकळ्या है।