आखिरी पावस (कविता) / महेश सन्तोषी
यह आखिरी पावस हमारी उम्र की
यह आखिरी बादल!
बादलों से दोस्ती कुछ इस कदर बढ़ती गई
निभाने को एक पूरी उम्र ही कम पड़ गई,
कुछ तपन थी जिन्दगी की कुछ धुआं था, भाप थी,
राख सुलगे ख़्वाब की थी दूर तक उड़ती गई,
एक सी थी हवाओं में घुली भीगी पीर,
एक सा था दो दृगों से एक साथ झरता जल!
यह आखिरी बादल!
क्या बताएँ बादलों से, कब, कहाँ, क्या बात की?
याद एक-एक प्यास की, फिर तृप्ति के आभास की,
प्यार की उँचाइयों के हर कदम पर आईनों से,
रंगों-उमंगों की रचना, सतरंगे आकाश की,
प्यार के सौ रूप अधरों पर समाहित से,
आँख में अब भी रमे हैं तृप्तियों के उत्सवों के पल!
यह आखिरी बादल!
शाम तक बुनते रहे हम जिन धुओं से पास से रिश्ते,
रोशनी तक साथ थे, अब रात है, बादल नहीं दिखते,
पूछना तो था हमें यह समय से, इन श्यामवर्णी बदरियों से,
डूबती परछाइयों के नाम भी थे, आँसुओं से हम कहाँ लिखते?
शायद काल के आखर बड़े हैं,
ढाई आखर सा, फैलने को है,
समय की स्याहियों का श्यामला आँचल!
यह आखिरी बादल!